दिन की शुरुआत में मानो,
सूरज ने मन चंचल बना दिया हो,
बिस्तर से उठते ही किसी ने,
कोई कड़वी सजा दिया हो,
दादी के चश्मे के नीचे से,
दादा की लाठी से गिर के,
बुआ की चोटी से लटके,
पापा के कंधों पर जा बैठे,
भागे भागे इस दुनिया के,
इस छोर से आखरी छोर तक,
ना कोई बंधन पकड़ के बांध सके,
न किसी के जाल में फंस सके,
दुनिया से कोसो कहीं दूर,
हवाओं के भाव में लहराते,
माँ के आँचल में छिप जाते,
लोरी की गुनगुन में बस गुम हो जाते,
लेकिन समय के फेर ने जगा दिया,
नन्हे हाथों पर जिम्मेदारी का बोझ थमा दिया,
दुनिया बनाने वाले तुझे दर्द मैं क्या सुनाऊं?
दिल करता है दूर कहीं निकल जाऊं,
या फिर वापस अपने बचपन में लौट जाउं।।
कविता शर्मा
बीकानेर, राजस्थान
चरखा फीचर

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